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Showing posts from December, 2015

Khwab

हमने बनाया था ख्वाबों का गुलिस्तां, जहाँ जस्बातों की सतह पर प्यार के गुल खिले थे अपनेपन और इज़्ज़त के दरख्तों पर सुकून के रसीले फल लदे थे महक रहा था गुलज़ार अरमानों का मोहबतों के झूले बंधे थे उन झूलों पर झूलती मैं उन झूलों पर झूलती मैं, अपनी हर खवाहिश कि नुमाइश करती, ऊँचे ऊँचे तेज़ भर्ती थी। अपने वज़ूद पर इतराती, अपना अक्स झील में देखा करती.... अरे ! उस झील का ज़िक्र क्यों छूट गया..... जिसके पानी में प्यार बहता था। वो प्यार जो अहम है  मेरा जिसमें मैं ही मैं झलकती हूँ प्यार ऐसा की जिसकी आघोष में मेरे सारे एब छुप गए हैं कहीं। ख्वाब तो ख्वाब हैं, हकीकत तो नही हकीकत इतनी खुशनुमा नही होती यहाँ सब पर मैं नही मेरा वज़ूद हारा सा, बेमाने सा अपनी ख्वाबों की टोकरी उठाये  भटक रहा है यहाँ वहां.... ....

Mera Akss

क्यूँ इतना मजबूर मेरा वजूद नज़र आता है ? उलझा उलझा बड़ा फ़िज़ूल नज़र आता है अपनी आँखों के बिखरते सपनों का क़तरा क़तरा ज़हर सा नज़र आता है हम ढूँढ़ते रहे जिन गलियों में खुद्की परछाई उन गलियों में अँधेरा ही नज़र आता है वो ख्वाहिशें जो उड़ती रहीं मेरे नभ पर आज सिमटी सी बेजान नज़र आतीं हैं वक़्त का खेल भी निराला है कभी ख़ुशी कभी गम का सिलसिला पुराना है डर लगता है तन्हाइयों की गहराइयों से कहीं गुमशुदा सा मेरा अक्स नज़र आता है ,,