"काव्य कथा" (साइकल ज़िन्दगी की !!)

क्यों खामोश हूं मैं? 1 दिन बड़े प्यार से मेरी खामोशी ने मुझसे पूछा, क्यों ऐसा चुपचाप हुआ मन? क्यों खामोशी का साया है? मन ही मन में फिर खामोशी से बात हुई तो एक किस्सा था उसने सुनाया। याद कर कितने अरमानों से मां बाबा ने एक साइकिल था तुझे दिलाया, यह साइकल जिंदगी की है ! नाम यह देख कर तुझे थमाया चलानी ये तुमको ही होगी, मदद भले हम कर देंगे, खुद ही जोर लगाना होगा, संतुलन भी रखना होगा, कोई सहारा साथ न होगा, गति भी तुमको तकना है उड़ाकर मन के गुब्बारे, मैं उड़ी चली फिर साइकिल पर जोर पैडल पर देते देते, मजे लेती थी हर पथ पर यूं ही गुजरे साल कई, मैं कभी नहीं खामोश रही चली जाती थी मेरे दम पर साइकिल मेरी जिंदगी की मेरे दम पर? हुsssss समय की धारा ने क्या बोलो, कभी किसी को बख्शा है? राह हमेशा समतल होगी, ऐसा तो नहीं होता है जीवन की पथरीले पथ पर, जब साइकिल के चक्के घूमे, मां बाबा का साथ भी छूटा और चक्के भी पिचक गए। दुनिया की इस भीड़ में, मैं ही मैं से बिछड़ गई, उलझ गई फिर जीवन में और साइकल मेरी कोने में थी खड़ी। पूछा मैंने फिर खामोशी से:...