Collection of my poems : Aksss "अक्स (A Reflection of my soul)"

अक्स (A Reflection of my soul)
"स्याही की भी मंज़िल का अंदाज देखिए हुजूर,
खुद-ब-खुद बिखरती है तो दाग़ बनती है,
जब कोई बिखेरता है तो अल्फाज़ बन जाती है।।"
            कम शब्दों में बड़ी बात कहने की इस कला को ही हिंदी में कविता, इंग्लिश में पोयम और उर्दू में शायरी कहा जाता है। यह भाषा का ऐसा निराला रूप है जिसे लिखने में जितना मज़ा आता है उतना ही इन्हें पढ़ने और सुनने में आनंद की अनुभूति होती है। सीधे सपाट शब्दों में कही गई बात से ज्यादा खूबसूरत तुकबंदी में कही गई बात में होती है।
 इस पुस्तक में मैंने मेरे मन के अक्स को आप सबके सामने प्रस्तुत करने की चेष्टा की है।  मेरी कविताओं के शीर्षक वैसे तो कुछ आम ही हैं, परंतु इन कविताओं की खासियत यह है कि इन कविताओं के माध्यम से गृहणियों व महिलाओं के मन में के हाल को दर्शाया गया है। उनके विचारों का अक्स आप इन शब्दों की माला में महसूस कर सकेंगे। कविताओं की श्रंखला कुछ सब टाइटल्स द्वारा विभाजित कर प्रस्तुत किया गया है जैसे: वंदन, मंथन, आत्म साक्षात्कार आदि। इन कविताओं की सोच कुछ इस प्रकार है की, जैसे :
माँ, इस शब्द पर अनेक कवि अपने विचारों को अनेक प्रकार से प्रस्तुत करते रहे हैं। मेरी कविता में मैंने माँ की वह स्थिति प्रस्तुत की है जहाँ माँ स्वयं ही अपने अस्तित्व, अपने लिए अपनी सोच का वर्णन कर रही है। यह कविता बहुत हद तक हम सभी माँओं पर बड़ी खूबसूरती से सजती है, जहाँ माँ अपनी सोच, अपनी ख्वाहिशों को परिवार और बच्चों के पालन-पोषण एवं अपने कर्तव्यों के रहते पीछे छोड़ दिया करतीं हैं।
तुम बिन, इस कविता में नारी के आत्मबल,  आत्मविश्वास और स्वाभिमान की ओर इशारा किया गया है। यह जताने की कोशिश की गई है कि ये ही नारी के जीवन का वह आधार है जिसके रहते हुए नारी हर परिस्थिति में जीवंत, अभिलाषी और सुदृढ़ नज़र आती है । इसलिए नारी शक्ति को समर्पित चंद पंक्तियां भी आपके सामने प्रस्तुत है।
वीरता, नामक इस कविता में खुद को ज़माने से अलग रखते हुए अपने हुनर को तलाशने की बात की गई है। जैसा कि हम सब जानते ही हैं कि इस दुनिया में सभी का अपना अपना कोई जुनून, कोई शौक होता ही है। पर हमारी जीवन शैली में हमारे शौक के लिए कोई खास जगह नहीं होती। जब सब कुछ करते हुए भी अपने शौक के लिए वक्त निकाला जाए या उस पर काम किया जाए तो मन को बहुत सुकून मिलता है। मगर ऐसा करने के लिए हृदय में बहुत वीरता की आवश्यकता है। इसी वीरता के बारे में अपनी पंक्तियों  द्वारा मन के भाव प्रकट करने की कोशिश कर रही हूं।
कौन हूं मैं, क्या पहचान है मेरी?  इन्सान से आत्मा द्वारा किये गए इस प्रश्न के उत्तर में भी कुछ पंक्तियां पुस्तक में प्रस्तुत हैं ।
चिंगारी! हिम्मत की, आशाओं की और उम्मीदों की, जिसके आधार पर इंसान अपने आत्मबल को संभालते हुए हर विपरीत परिस्थिति में भी जीता रहता है। संघर्ष सबके जीवन का हिस्सा है, पर यह चिंगारी ही तो है जिसके चलते संघर्ष के अंधेरों में भी रोशनी का एहसास रहता है। यह चिंगारी जो धीमे धीमे हमारे अंदर सुलगते हुए कुछ कर गुजरने को प्रेरित करती रहती है। वही एक न एक दिन ज्वाला की तरह अपने आप को सबके सामने प्रज्ज्वलित कर अपनी चमक दिखाती है।
   मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि आज मैं अपने आप को एक लेखिका के रूप में सजा हुआ पाती हूँ और इसका श्रेय मेरी माँ श्रीमती रीता सिंह,  मेरे जीवन साथी श्रीमान मनप्रीत सिंह, मेरी सबसे खास मित्र श्रीमती भारती शर्मा एवं सुमन शिवयोगी और मेरी प्रिय बेटियाँ सुश्री गुरलीन कौर एवं मवलीन कौर को दिए बगैर मेरे वजूद का श्रृंगार मुमकिन नहीं हो सकता। इन्हीं के प्रोत्साहन और असीम प्रेम के चलते आज मैं अपने आपको इस काबिल मान कर पाई हूँ कि शब्दों को बाँधकर सबके सामने प्रस्तुत करने की हिम्मत कर पा रही हूँ।
तो आइए, इस पुस्तक का आनंद लीजिए और मुझे अपने कॉमेंट्स द्वारा अवश्य अनुग्रहित भी कीजिए।
 धन्यवाद 
INDEX
·        ईश वंदना/ गुरु वंदन
1 ऐ-मालिक                                             4
2 उमंग                                                5
3 गुरू                                                   6
·        विचार मंथन
4. मरीचिका                                          7
5. अक्स                                               8
6. ख्वाब                                              9
7. जीवनधारा                                       10
8. घुटन                                   
·        ग्रहणी की मनोस्थिति
9. घर की धूल                                         12   
10. माँ                                                  13
11. सपने                                              14
12. सपना                                             15
13. आस                                              16
·        अंतर्मन की जागरूकता
14. अक्सर एक सवाल सा!!                   17
15. कौन हूं मैं!!                                       18
·        आत्म साक्षात्कार
16. तुम बिन                                           19
17. वीरता                                              20
18. नाम कमाने निकले हैं                      21
19. चिंगारी                                              22
20. मंजिल                                            23


ईश वंदना गुरु वंदन
1. ऐ-मालिक
  ऐ-मालिक,
बस इतना करम करना
आँखों में शर्म रखना हाथों में धर्म रखना
अपनी मर्यादाओं का ज़हन में अदब रखना
ऐ मालिक
ज़्यादा नहीं बस इतना करम करना
बढ़ते कदमों को पिछले से बेहतर रखना
अच्छाई ना छूटे ज़रा नज़र रखना
किरदार ऐसा देना कि पर्दा गिर भी जाए चाहे
पर देर तक बजती रहे तालियां इज़्ज़त मेरी ऐसी रखना
इज़्ज़त मेरी ऐसी रखना
ऐ-मालिक
ज्यादा नहीं बस इतना करम करना
                                                                      रमन 


2. उमंग
नई सुबह की नई किरण ने,
नई सोच को ताकत दी है,
नए ज़माने की इक लहर ने,
नई उमंगों को राह दी है।
        और भी राहें तकी थी हमने,
        कोशिशें भी हज़ार की थी,
        मगर वही है यहाँ सिकंदर,
        प्रभु की जिस पर नज़र पड़ी है।
समय की धारा बड़ी प्रबल है,
कोई भी यूं ही न तर सका है,
पर जोश अपना भी ज़ोर पर है,
रोज़ लड़े हैं जमाने भर से।         
              यकीन है हमको खुलेंगी राहें,
              उड़गें खुलकर बाहें पसारे
              कभी तो होगी अपनी भी किश्ती
              जो पार तक मेरा साथ देगी।
 नई सुबह की नई किरण ने,
नई सोच को ताकत दी है,
नए ज़माने की इक लहर ने,
नई उमंगों को राह दी है।
                                              रमन  


3. गुरू
(The Teacher)
गुरु बिना घोर अंधेरा, गुरु बिना नहीं कोई मेरा.
ज्ञान के दीप जलाए गुरु ने, भ्रम तज मार्ग दिखाएं गुरु ने
धर्म, दया, मूल्य और नियम से, बुद्धिजीवी बनाएं गुरु ने
अनुशासन और कड़े जतन से, उत्तम व्यक्तित्व सजाएं गुरु ने।
गुरु के रूप कई जीवन में,
 उच्च ज्ञान जो हमको दिखलाऐं
माता गुरू बन स्वर समझाएं, पिता गुरु बन चलना सिखाए
धर्म ज्ञान को गोविंद गुरु भय,  विद्यालय में मास्टर जी आए।।
जीवन के पथ रिले पथ पर, कैसे संतुलन रखना है?
कदम-कदम हरि नाम को जपकर कैसे, क्या, कब, क्यों करना है।
सारा पाठ गुरु जी सिखाते, हर एक बात गुरुजी समझाते
हंसा हंसा कर रुला धुलाकर, हर एक संभव यत्न जुटाकर
हमको सुंदर व्यक्तित्व बनाते, हमको मानवता से खिलाते...
ऐसे सारे गुरुजनों को......
हम हाथ जोड़कर नमन बुलाते
हम हाथ जोड़कर नमन बुलाते….
                                                                        रमन 
विचार मंथन

4. मरीचिका
आसमान जितना भी दिखे,
हाथों में समा सकता नहीं
आईने में अक्स चाहे मैं ही हूँ,
फिर भी छुआ जाता नहीं
ख़्वाब जितनी भी हो,पलकों की खुलते ही मिला करते नहीं
तमाम उम्र गुज़र रही हैं सीखने सिखाने में,
फिर भी यूं लगता है मानो अब भी कुछ आता नहीं।
हँसते रहते हैं हम ज़माने के सामने हरदम,
सोचते हैं सब, कि शायद रोना हमें आता नहीं।
ऐ-रब कैसी यह अजब रिवायत है तेरी,
जैसा दिखता है, वैसा कभी होता क्यों नहीं…. होता क्यों नहीं??
                                                                                  रमन 



  5. अक्स
क्यों इतना मजबूर मेरा वजूद नज़र आता है,
उलझा उलझा बड़ा फ़िजूल नज़र आता है..

अपनी आंखों के बिखरते सपनों का,
कतरा कतरा ज़हर सा नज़र आता है..

हम ढूंढते रहे जिन गलियों में खुद की परछाई,
उन गलियों में अंधेरा ही नज़र आता है..

वो ख्वाहिशें जो उड़ती रही मेरे नभ पर,
आज सिमटी सी बेजान नज़र आतीं हैं..

वक्त का खेल भी निराला है,
कभी खुशी कभी गम का सिलसिला पुराना है..

डर लगता है तन्हाईयों की गहराइयों से,
कहीं गुमशुदा सा मेरा अक्स नज़र आता है..
कहीं गुमशुदा सा मेरा अक्स नज़र आता है।।

                                                                रमन 

6. ख्वाब
हमने बनाया था ख़्वाबों का गुलिस्ताँ,
जहाँ जज्बातों की सतह पर प्यार के गुल खिले थे..
अपनेपन और सम्मान के दरख्तों पर
सुकून के रसीले फल लगे थे...
            महक रहा था गुलजार अरमानों का,
            मोहब्बतों के झूले बंधे थे..
उन झूलो पर झूलती मैं
उन झूलों पर झूलती मैं!
अपनी हर ख़्वाहिश की नुमाइश करती…..
ऊँचे ऊँचे तेज भर्ती थी..
             अपने वजूद पर इतराती
             अपना अक्स झील में देखा करती..
अरे! उस झील का जिक्र कैसे छूट गया?
जिसके पानी में प्यार बहता था,
                 वह प्यार जो अह्म है मेरा,
                 जिसमें मैं ही मैं झलकती हूं...
प्यार ऐसा कि जिस की आगोश में
मेरे सारे ऐब छुप गए हैं कहीं..
ख्वाब!!
ख़्वाब तो ख़्वाब हैं हक़ीक़त तो नहीं,
हक़ीकत इतनी खुशनुमा नहीं होती...
                यहाँ सब है, पर मैं नहीं,
                मेरा वजूद हारा सा, बेमानी सा….
अपने ख्वाबों की टोकरी उठाए
भटक रहा है यहां वहाँ
भटक रहा है यहां वहाँ....
                                                               रमन


7. जीवनधारा
बहुत कुछ छिपा है मेरे मन में,
उछलता कूदता शब्दों में बंध जाने को बेक़रार!
पर कमबख्त यह मसरूफियत कलम उठाने ही नहीं देती
जिंदगी लम्हा लम्हा बड़े जा रही है,
हम बच्चे से बड़े और फिर और बड़े हुए जा रहे हैं,
बड़ा शैतान है यह दिल जो समय के बदलाव
और चेहरे की झुर्रियों को अपनाने से डरता है
मानो कल शाम की ही तो बात है
जब हम सड़क पर फ्रॉक पहने दौड़ा करते थे
और आज उस रूप में अपनी बेटी को देख,
रसोई की खिड़की पर अपनी माँ की जगह खुद को
पाकर भी सपनों की तरह टाल दिया करते हैं
इस दौर में हजारों लोग मिले बिछड़े अनेक तरह से हँसे रोए
वक्त में पाबंद हम अपनी गति में चले जा रहे हैं
बस चले जा रहे हैं…...
                                                                                       रमन 

8. घुटन
गुमसुम सी,  बे-चैन सी, बड़ी बे-हाल सी लगती है जिंदगी,
 हर शाम बड़ी बीमार सी लगती है जिंदगी,
              ढलता सूरज मायूस सा कर जाता है,
              ख़ालीपन और अनमने भाव से भर जाता है,
सोच में डूबने लगते हैं मेरे एहसास!!
              एक और दिन गुज़र गया गुमनामी में?
              एक और दिन दे गया एहसास नाकारी का?
क्या कर रही हूँ मैं, क्यों जिए जा रही हूँ?
दिशाहीन राह पर चले जा रही हूँँ ।    
              है अरमान कई सीने में,
              जिन्हें जीना है अभी….
              डर लगता है, डर लगता है,
              कहीं अरमानों के साथ,
              अपने आप में गुम ही न हो जाऊँ यूं-ही….
ख्वाहिशों के परवाज पंख पसारने को बेकरार पुरजोर कोशिशों के बाद फिर अपना सा मूँह लिए  चुप हो जाते हैं…
         अब कोई चीज़ मन नहीं बहलाती….
         अब कोई बहाना साथ नहीं देता…...
अपनी मजबूरियों और कमजोरियों से
 घिरी मैं तड़पड़ा उठती हूँ,
अंदर ही अंदर चीख़ रहा है मेरा आत्मबल, मेरा आत्मसम्मान और मेरा आत्मविश्वास
कह रहा है मानो मुझसे और मेरे आसपास की दुनिया से
कि मुझे वह अवसर दे दो…..
वह शक्ति दे दो…...
जो मुझे इस जीवन में कुछ कर गुजरने का
एहसास दे सके, एहसास दे सके!!
                                                                   रमन  
ग्रहणी की मनोस्थिति
9. घर की धूल
चमकती धूप में जब कभी देखा अपनी हथेली को,
कम नहीं पाया किसी से भी इन लकीरों को,

कुछ कमी तो रह गई फिर भी नसीब में मेरे,
ठोकरें खाता रहा मन हर कदम तकदीर से,

हर सुबह लाती है मुझ में इक नया सा हौसला,
हिम्मतें उठती हैं मन में लेने को कोई फैसला...

ये भी कर लूं, वो भी कर लूं, जी लुं अपने आपमें,
कोई मजबूरी या बंधन रोके ना अब राह में,

साथ चढ़ते सूर्य के फर्ज भी बढ़ता गया,
जिम्मेदारियों कि लय में दिन भी ढलता गया।

मैं मेरे सपनों के भीतर यूं ही उलझी रही,
शाम आते ही अरमानों का रंग भी उड़ गया,

बहुत कड़वा है यह अनुभव सोच और सच्चाई का,
दोष किसका है यहाँ पर, केवल अपने आप का...

क्यों यह सोचा कोई आकर मेरे लिए सब लाएगा?
क्यों न सोचा मैं ही उठ कर खुद ही सब कर पाउंगी?

कर रही हूं हद से बढ़ कर मूल्य जिसका कुछ नहीं,
मूल्य क्या कोई भरेगा जो भी है अनमोल है...

फिर भी लोगों की नज़र में ग्रहणी घर की धूल है,
फिर भी लोगों की नज़र में ग्रहणी घर की धूल है....
                                                                  रमन  

10. माँ
रिश्तों के तो नाम कई हैं,
पर माँ होना आसान नहीं है।
        अपना हर एक ख़्वाब भुलाकर,
        खुश रहना आसान नहीं है।
एक एक काम है माँ के ज़िम्मे,
समय सारणी सख्त बड़ी है।
पल पल काम में उलझे रहना,
सच जानो आसान नहीं है।
माना ये एहसान नहीं है,
किसी पर इल्जाम नहीं है,
          पर अंतर्मन की अभिलाषा को,
          भुला पाना आसान नहीं है।
घर छोड़ो तो घर बिगड़ेगा,
मन तोड़ो तो मन बिगड़ेगा,
दोनों को समेट के चलना,
ये भी तो आसान नहीं है।
सबसे कठिन तो तब लगता है,
जब कोई नहीं समझ पाया ये,
          कि कैसे माँ ने पूरी की है,
          हर रिश्ते की ज़िम्मेदारी।
कर कर के भी नाम ना मिलना,
हक का वो सम्मान ना मिलना,
हँसकर सब कुछ टालते रहना,
बिलकुल भी आसान नहीं है।।
रिश्तों के तो नाम कई हैं,
पर माँ होना आसान नहीं है।
                                                       रमन 

(Feeling of  Housewife)
प्रस्तुत हैं परस्पर दो कविताएं, जिनमें एक ग्रहणी के बीते कल के सपने और जागरूक मन का सपना दर्शाया गया है। बड़ी विडंबना है हमारे समाज की कि जहाँ कोई भी घर नारी के समर्पण के बगैर बन नहीं सकता, वहीं नारी के सपनों के लिए कोई स्थान नहीं होता। छोटी-बड़ी कई बातों और रिवाज़ों के बहाने उसके सपनों को बाँधा और कचोटा जाता है। पर समाज के  दावेदारी यह क्यों नहीं समझते कि सपनों को उभरने से रोका तो जा सकता है, पर अंतर्मन में सपनों को जीने से कोई नहीं रोक सकता। कहीं ना कहीं भीतर ही भीतर नारी के मन के अंदर छिपे सपने उसे अपनी ओर खींचते ही हैं।
11. सपने
 मेरे वह सपने जुड़े थे तुमसे
तुम ही से मेरा ह्रदय जुड़ा था
तुम्हें जो पाया मन उड़ चला था
तुम्हीं से मेरा हर आसरा था
पर तुम्हें था प्यारा यह जहाँ सारा
ना मिल सका मुझे तुमसे सहारा
मैं छिप गई फिर निज दायरों में
और छोड़ बैठी सपने सजाना
फिर वक्त बदला नया दौर आया
मैंने भी जाना खुद ही का फसाना
यही कि यहाँ हमको जीना है अकेले
यही कि यहां हमको जीना है अकेले
उठो और अपने सपने समेटो
नए तौर से इन को फिर से सजाओ
चलो चलो चलो अब रुको मत,
बस चलते ही जाओ...बस चले ही जाऔ….
                                                                                रमन 

12. सपना
खुली नज़र का मेरा ये सपना,
बना रही हूं मैं इक घरौंदा-इक घरौंदा...

जहाँ सुनाई दे रहे हों ताने,
कोई भी अपना न मुझ को माने।

ज़रा तो सोचो गुज़र हो कैसे
उन महलों में मेरे अह्म की...

हैं तो बहुत घर मेरे जहाँ में,
बड़े जतन से जिन्हें सजाया...

पर! किसी ने बोला तुम हो पराई,
तो, किसी ने पूछा कहाँ से आई?

इन ज़िल्लतों का बोझ है मन पर,
कुछ कर गुजरना है अपने दम पर..

कब तक रहूँगी मैं बोझ बनकर,
मैं क्यों नहीं सोचती हूं हटकर..

पिता, पति, पुत्र और भाई,
सभी के घर में रही पराई...

कभी कहीं घर मेरा भी होगा,
जहाँ सर उठा कर मेरे सकूंगी..

खुली नज़र का मेरा ये सपना,
बना रही हूँ मैं इक घरौंदा- इक घरौंदा…
                                                      रमन 

13. आस
जिंदगी बहुत कठिन लगती है मुझे
हर दिन नई चुनौती लिए खड़ा है तन कर,
          दिलो-दिमाग अब थकने से लगे हैं मानो
          बुझता चेहरा भी मेरी दास्तान सुनाता है
जो चाहा, जब चाहा पाने वाली मैं,
           जो चाहा, जब चाहा पाने वाली मैं,
          अब हर चाह पर काँपने सी लगती हूँ,
 अपनी सोच में जिसे दिल दिया था कभी
आज उसी से सोच कर बात करती हूँ
             सोचते सोचते गुज़र गई कई रातें
             पर सोचा क्या? यह बात, अब भी बाकी है।
हर वादा, हर बात झूठी है यहाँ,
कोई नहीं है जो इन्हें निभा पाए
                  सब की जरूरतें,
                  सब की जरूरतें,जुड़ी है मुझसे
                  मेरी ख्वाहिशें क्यों बेमानी हैं  
सोच और हकीक़त के ताने-बाने में
सोच और हकीक़त के ताने-बाने में, देखो!
उलझने रोज़ गहरी होती हैं
               अपना आसमान दूर बहुत दूर है अभी...
               पर चाह प्रबल और आस अभी बाकी है,
                   चाह प्रबल और आस अभी बाकी है।।   
                                                                             रमन 


अंतर्मन की जागरूकता
14. अक्सर एक सवाल सा!!
पूछा है जिंदगी से यह सवाल कई बार,
आखिर मुझे है किस बात का इंतजार?

  जिंदा हूं मैं, क्योंकि सांसे हैं बरकरार,
पर जज्बातों के भीतर घुटन क्यों है बेशुमार?
क्यों जिए जा रही हूं मैं बे-मकसद दिन रात?
गर नहीं है कोई मंज़िल, तो क्यों खुश नहीं होता मन हकीक़त के साथ।
क्यों उलझते हैं ज़हन में अनेकों सवाल,  
क्यों नहीं मिलता इन सवालों को जवाब?

कारवांए जिंदगी हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं,
ये किया नहीं, वो हुआ नहीं, ये मिला नहीं, वो रहा नहीं।।

सभी सवालों का बस एक ही है जवाब,
बस एक ही है जवाब,
जिंदगी जीना है, तो रोमांच मन में उतार,
वक्त बहुत कम है हम सभी के पास,
मिला है जो भी वो नेमत है रब कि।
सवालों को छोड़ और जीने की ठान,
रास्ता खुद ब खुद निकल आएगा एक रोज।
आखिर...   
वक्त से पहले और नसीब से ज्यादा किसको मिला है यह भी तो सोच,
वक्त से पहले और नसीब से ज्यादा किसको मिला है यह भी तो सोच......
                                          
                                                                                             रमन 


15. कौन हूं मैं? क्या पहचान है मेरी? 
कौन हूं मैं, एक मुसाफिर हूं,
जीवन धारा का राही हूं,
पग पग बदलते हालातों का जीता जागता गवाहों मैं,

गतिशील समय की हर ताल पर,
थिरकने वाला कलाकार हूं मैं,

आज़ाद खयालों से उठता, उज्जवल आत्म सम्मान हूं मैं,
पहचान अभी छोटी ही सही रिश्तों में घिरे आंगन की तरह,

एहसास मगर अस्थिर हर पल,
उठ उठ कर जगा करते हैं,

 मंजिल की डगर पर निकल पड़े
अब राही रुक नहीं सकते हैं,

 फिर कर ले कोई घना अनुभव,
 और कर अपना प्रबल करतब

 जो जनहित या जग हित में हो,
 जिससे तेरे नाम को नाम मिले
और
मंजिल से पहले कुछ पहचान मिले।।
                                                                            रमन 


आत्म साक्षात्कार
16. तुम बिन
मैं जी नहीं पाऊंगी तुम बिन, हां जी नहीं पाऊंगी तुम बिन।

चाहे रिश्ते हजार मिल जाए, पर साथ ना कोई भी तुम बिन,
चाहे नाम अनेकों पड़ जाऐं, पहचान नहीं मेरी तुम बिन,
चाहे काम पहाड़ से बढ़ जाऐं, पर शक्ति नहीं होती तुम बिन,
चाहे वक्त बहुत कम रह जाए, पर मूल्य नहीं मेरा तुम बिन।।

यह तय है, मेरा अनुभव है, मैं जी नहीं पाऊंगी तुम बिन...

तुम! कौन हो तुम ?
तुम मेरी हस्ती का कारण हो, तुम मेरा स्वाभिमान भी हो।
तुम मेरे अंदर दहक रही, प्रकाश पुंज की ज्वाला हो।
मैं नारी हूं और और शक्ति भी, तुम मेरा आत्म संभल हो..
तुम मेरा संयम कोष भी हो, और ममता की नौ निधि धारा भी..
 तभी....
चाहे कोई साथ ना रह पाए, पर साथ मेरे तुम हो हर क्षण।
चाहे युद्ध अनेक हों जीवन में, पर स्नेह  तुम्हीं से है हर क्षण।  
चाहे कोई पुकार न सुन पाए, तुम सुनते रहते हो हर क्षण।
चाहे मन न कहीं भी बहल पाए, दिल को समझाते तुम हर क्षण।

तो ये तय है, मैंने देखा है, मैं जी नहीं पाऊंगी तुम बिन…
मैं जी नहीं पाऊंगी तुम बिन…

                                                                                रमन 
 17. वीरता
(Bravery to chase the passion)


यही तो उलझन है रात दिन,
खुदी को गढ़ना है रात दिन…
दुनिया की अब क्या बात कहे,
दुनिया तो शोर मचाती है..
हमें तो बढ़ना है रात दिन,
ये जोश रखना है रात दिन..
नियम ज़माने के कठिन हैं,
इन्हें निभाएंगे रात दिन..
 पर अपने सपनों को जी सकें,
वो राह खोजेंगे रात दिन..
नहीं है आसां ये इंतेहा,
चलना है उल्टी दिशा यहां..
कोई ना रोके अब राह में,
हम चल पड़े हैं रात-दिन…
निगाहें अपनी बुलंद किए,
बड़ी वीरता दिल में लिए...
सभी से छुपकर तराशते,
अपने हुनर को अब रात दिन..
सभी से छुपकर तराशते,
अपने हुनर को अब रात दिन ...
यही तो उलझन है रात दिन,
खुदी को गढ़ना है रात दिन..

                                               रमन 

 18. नाम कमाने निकले हैं.... 
बहुत जी लिए घुट घुट कर,
अब पंख पसारने निकले हैं।
           भाषा सागर से शब्दों के,
           मोती निकालने निकले है।
गलियाँ जीवन की तंग है, पर
हम तकदीर बनाने निकले हैं।
               प्रश्न बहुत हैं लोगों के,
              अंकुश सब त्याग के निकले हैं।
अपने विश्वास से सज धज कर,
हम नाम कमाने निकले हैं...
             हम नाम कमाने निकले हैं,
             हम नाम कमाने निकले हैं।।
                                                             रमन 

19. चिंगारी
आसमां झुक भी सकता है ना बुझने दो ये चिंगारी,
ना बुझने दो हवा दे दो है आशाओं की चिंगारी...

ये चिंगारी भड़की तो ज्वाला बन के उभरेगी,
ना बुझने दो हवा दे दो है उम्मीदों की चिंगारी...

राह संघर्ष की हर हाल में तय करनी है हमको,
उजाला दिन का साथी है तो रातों में है चिंगारी...

नहीं जीना है डर डर कर खड़े होना ही है हमको,
सजाना है पहले अपना दिखा दो एक चिंगारी…
                                                          रमन 


  20. मंजिल
 मंजिल यूँ ही नहीं मिलती राही को
जुनून दिल में जगाना पड़ता है,
पूछा हमने ये हर शै से कि,
सफर में क्या क्या होता है।

पूछा चिड़िया से हमने कि,
ये घोंसला कैसे बनता है?
वो बोली दम भरकर इक पल कि,
तिनका तिनका उठाना पड़ता है।
माँ से पूछा हमने इक रोज़ कि,
ये बालक कैसे पलता है?
नम करके आँखें वो बोली,
अपने लहू से सींचना पड़ता है।

चींटी का सफर भी कहाँ कम है,
गिर गिरके उठना पड़ता है।
किसान को भी निज खेतों में,
अग्नि सा जलना पड़ता है।

मंजिल यूँ ही नहीं मिलती राही को,
जुनून दिल में जगाना पड़ता है।।
                                                                        रमन 

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