Sikh Guru Sahiban- Miri Piri Diwas

"मीरी पीरी के मालिक, दाता बंदी छोड़
छेवीं पातशाही श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी के प्रकाश पर्व की आप सभी को ढेरों बधाइयां"।।
जो लोग नियमित रूप से सिख धर्म से अथवा गुरुद्वारा साहिब की सेवा से जुड़े हैं, वे जानते हैं कि आज के दिन लंगर में मिस्से (बेसन और अन्य अनाजों के मिश्रण से बने ) प्रशादे (रोटी), प्याज़ एवं लस्सी का स्वादिष्ट भोज संगत में परोसा जाएगा। अक्सर लोग त्योहारों को भोजन के नाम से याद रखते हैं जैसे: "मिस्से प्रशादे वाला गुरपुरब"। आज सभी बड़े चाव, श्रद्धा और भाव से इस पवित्र लंगर का आनंद ले रहे हैं। परंतु क्या किसी दिवस का अर्थ केवल स्वादिष्ट भोजन ग्रहण करना ही है? क्या हमें इस बात से अवगत नहीं होना चाहिए कि यह दिवस हम आखिर मना ही क्यों रहे हैं? इसके अलावा यदि हम थोड़ा संजीदगी से सोचें तो सिख धर्म भारतीय इतिहास का बहुमूल्य हिस्सा है। बहुत छोटे समय के इतिहास और अल्पसंख्यक होने के बावजूद भी सिख समुदाय का भारत एवं भारतीयता के साथ अटूट बंधन रहा है। परंतु विडंबना यह है कि, सिख इतिहास के बारे में औरों को तो क्या स्वयं नई पीढ़ी के सिख बच्चों को भी ज्यादा कुछ पता नहीं है। कहा जाता है कि सिख धर्म, इतिहास के नींव और बहादुरी की दीवारों पर चढ़कर तैयार हुआ है।
सिख इतिहास के बारे में जितना भी लिखित तौर पर दर्ज है वह या तो गुरमुखी लिपि अथवा इंग्लिश में है जिस वजह से बहुत से लोग इस तक आसानी से नहीं पहुँच पाते और सिख धर्म से जुड़े अनेक तथ्यों से वंचित हैं।
पिछले लेख में मैंने आपके साथ श्री गुरु अर्जुन देव जी की अकाल्पनिक और अतुलनीय शहीदी के बारे में कुछ चर्चा की थी। आज उन्हीं के पुत्र श्री गुरु हरगोबिंद जी के जन्मदिवस पर सिक्ख इतिहास के एक और पहलू के साथ आपके रुबरु हो रही हूँ। पाँचवें गुरू पिता श्री गुरु अर्जन देव जी एंव उनकी पत्नी माता गंगा जी के घर बहुत समय तक संतान न थी। कुछ लोग माता गंगा जी से कहते कि, आप गुरु स्वरूप, ईश्वर स्वरूप, श्री गुरु अर्जन देव जी की पत्नी हैं तो उन्हीं से वर क्यों नहीं मांग लेती, वह जो सबकी झोली भरते हैं क्या आपको वर नहीं देंगे? श्री गुरु अर्जुन देव जी ने स्वयं के घर स्वयं ही किसी भी प्रकार का आशीर्वाद देना अस्वीकार करते हुए माताजी को "बाबा बुड्ढा जी", जो कि श्री गुरु नानक देव जी के समय से गुरु घर की सेवा कर रहे थे और अपने गांव में अपनी खेती बाड़ी संभालते हुए निष्पक्ष, निस्वार्थ गुरु की सेवा में लगे रहते थे के पास जाकर वर मांगने के लिए प्रेरित किया।
तब माता गंगा जी हरसंभव दान अथवा तोहफे लेकर बाबा बुड्ढा जी के पास उनके गांव गई। कहा जाता है कि बाबा बुड्ढा जी उस वक्त अपने खेतों में काम कर रहे थे तथा थकान की अवस्था में दूर से आते हुए लाव लश्कर को देखकर कुछ अनमने भाव से कह उठे कि आज गुरु के घर से यह हंगामा क्यों चला आ रहा है। माता गंगा जी के करीब आने पर और वर मांगने की आज्ञा लेने पर बाबा बुड्ढा जी ने उन्हें उत्तर दिया कि वर मांगने के लिए दिखावे और दुनियादारी की आवश्यकता नहीं होती, यदि आप सच में किसी चीज की इच्छुक हैं और वह मांगना चाहती हैं तो स्वयं अपने हाथों से जो बन पड़े पकाकर प्रेम पूर्वक मेरे लिए लाए और मुझसे जो आशा रखती हैं गुरु के आशीर्वाद से आपको वह अवश्य  प्राप्त करें। ऐसा सुनकर माता गंगा जी लौट जाती हैं और फिर अगले दिन अपने हाथों से मिससे प्रशादे ,यानी आटे के साथ बेसन और अन्य अनाज मिलाकर स्वादिष्ट पराठे तैयार करके साथ में लस्सी और प्याज़ बांधकर, सर पर रख कर स्वयं नंगे पैर बाबा बुड्ढा जी के गांव तक उनके खेतों पर पहुँचती हैं। उस दिन भी बाबा बुड्ढा जी खेतों में काम करते हुए भूख महसूस कर रहे थे। माता जी को देख कर पेड़ के नीचे आकर बैठते हैं और माताजी से उस पोटली को अपनी ओर खींचते हुए कहते हैं,
"माँ आज तो आपने कमाल कर दिया मुझे बहुत भूख लगी थी और पोटली को खोलकर उसमें से प्याज़ को अपनी दोनों हथेलियों पर जोर से दबा कर कहते हैं तुझे ऐसे पुत्र की प्राप्ति होगी जो दुश्मनों का सिर इसी तरह कुचल डालेगा और धर्म के लिए अधर्म का नाश कर देगा। तब माता गंगा जी के उधर से श्री गुरु हरगोविंद जी का प्रकाश निश्चित होता है।"
श्री गुरु हरगोबिंद जी सिखों के 10 गुरुओं में से छठे गुरु अथवा छठे नानक के रूप में सुशोभित हैं। आज सारा सिख जगत इन्हीं का प्रकाश पूरब मना रहा है। प्रकाश पूरब : सिख मर्यादा के अनुसार ईश्वर स्वरूप गुरु जन जब कभी इस धरती पर मानव कल्याण के लिए अवतरित हुए उस शुभ दिन को प्रकाश पूर्व अथवा अज्ञानता के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने वाले दूत के अवतरण के दिवस के रूप में मनाते हैं। श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी पांचवे गुरु श्री गुरु अर्जन देव जी एवं माता गंगा जी के सुपुत्र हैं और इन्होंने 11 वर्ष की अल्पायु में अपने पिता के शहीद हो जाने के बाद गुरु गद्दी संभालते हुए :
सिख जगत के कल्याण हेतु साहित्य के अलावा राजनीति की ओर भी मनुष्यता का ध्यान केन्द्रित  किया।
श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी को "मीरी और पीरी के दाता" के रूप में जाना जाता है।
मीरी : मीरी का मतलब शस्त्र धारण कर अन्याय के विरुद्ध सशक्त होने की  समझदारी एवं साहस की स्थापना करना है।
पीरी :  पीरी का मतलब बुद्धि जीविता, आत्मज्ञान, ईश्वरीय ज्ञान, भक्ति, श्रद्धा और विश्वास आदि के जान से सदैव प्रसंग एवं आनंदित रहना होता है।
वैसे तो सिख धर्म में मूर्ति अथवा चित्र की पूजा करना वर्जित है, कहा जाता है कि क्योंकि हमने गुरु को प्रत्यक्ष नहीं देखा इसलिए हम उनका कोई स्वरूप निर्धारित नहीं कर सकते। इसके अलावा श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने बाद गुरु ग्रंथ साहिब जी को ही गुरता गद्दी देकर सभी मानव और मानवता के लिए धर्म को ज्ञान के रूप में सुशोभित कर किसी भी सजीव व्यक्ति की पूजा से वर्जित कर सभी को ज्ञान की राह से जोड़ दिया है। ऐसे में किसी सजीव व्यक्ति, किसी पत्थर या मिट्टी की मूर्ति अथवा किसी चित्र की पूजा करना मना है। इसके पीछे का तर्क मात्र इतना है कि हम आडंबरओं से, दुनियादारी से और दिखावे से परे आँखें मूंद कर स्वयं ईश्वर की  असीम शक्ति के साथ अपने आप को जोड़ें और उनके नाम के सिमरन अथवा जाप और प्रभु जी का आलौकिक गुण गाण करते हुए अपना जीवन तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक तरीके से जीऐ। इस फिलॉसफी से किसी और धर्म, जाति अथवा समुदाय का खंडन करना बिल्कुल नहीं है।
पर फिर भी मेरे लेख को आगे बढ़ाने के लिए और श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी के जीवन की एक खास बात को दर्शाने के लिए मैं यह बताना चाहती हूं कि यदि आपने कभी सिख गुरुओं के चित्र देखे हों तो आपने यह ज़रूर नोट किया होगा कि श्री गुरु नानक देव जी से लेकर पांचवी पातशाही श्री गुरु अर्जन देव जी तक सभी गुरू संत स्वरूप में विराजमान हैं, और उसके बाद छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद जी ने अपना भेस एक राजकुमार के जैसा जिसमें सर पर सजीली पगड़ी उस पर कलगी, तन पर शेरवानी, पैरों में जड़ाऊ जूती, और अपने हाथ में तेज तलवार, तीर कमान एवं घोड़े की सवारी आदि स्वरूप को अपनाया और अध्यात्म का मानवता से  नया परिचय करवाया।
इंसान केवल संत अथवा सन्यासी होकर नहीं रह सकता अपितु समय समय पर उसे राजनीति, कूटनीति, शस्त्र विद्या जैसे सभी गुणों का इस्तेमाल, धर्म की राह पर चलते हुए करते रहना होता है।  
सिख मार्शल आर्ट गतके का आरंभ श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने ही करवाया। जिसके तहत एक व्यक्ति विशेष को धर्म की राह पर चलते हुए भक्ति स्वरूप में रखते हुए भी शस्त्र ज्ञान लेकर अन्याय के खिलाफ खड़े होने के गुण सिखाया जाता हैं। इस कौशल को लड़के एवं लड़कियां दोनों ही निसंकोच सीख सकते हैं।

दाता बंदी छोड़:  इतिहास कहता है कि तत्कालीन बादशाह जहांगीर अपने आगे किसी को भी शस्त्र उठाने की इजाज़त नहीं देता था। उसे लगता था कि भारत उस की जागीर है। अपने बहुत बड़े सैन्य बल और ताकत के आधार पर बादशाह ने एक एक करके भारत के सभी राज्यों को अपने अधीन कर लिया था। इसके अलावा वहाँ के राजाओं को भी बंदी बनाकर ग्वालियर के किले में कैद कर रहा था। ताकी ये राजा कहीं फिर से अपनी सेना तैयार करके उसके विरुद्ध खड़े न हो सकें। इसी श्रंखला में बादशाह जहांगीर ने श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी को भी ग्वालियर के किले में कैद कर लिया, क्योंकि कहीं ना कहीं शस्त्र धारण कर गुरुजी भी धर्म हित के लिए जहांगीर के खिलाफ खड़े होते दिखाई दे रहे थे। कैद के दौरान गुरुजी की मुलाकात उन 52 राजाओं से हुई जिन्हें बादशाह ने कैद में बहुत बुरी स्थिति में रख रखा था। गुरुजी ग्वालियर के किले में करीब 2 वर्ष तक कैद में रहे और किसी संधि के आधार पर जब गुरु जी को कैद से छूटने का मौका मिल रहा था तो गुरु जी ने 52 राजाओं को भी अपने साथ निकालने की रखी। बादशाह ने कुछ खेल करते हुए कहा कि जितनी कलियां आपके अंगरखे में हों, उन्हें पकड़कर जितने राजा निकल सकते हों, उन्हें ले जाइए। गुरूजी के अंगरखे में करीब 50 कलियां थी और अब दो राजाओं को बाहर निकालने हेतु उन्होंने अपने अंगरखे के दो बटन पकड़ा दिए थे और इस तरह उन राजाओं को बंधन से मुक्ति कराते हुए श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी हिंदू कैलेंडर के हिसाब से दीवाली वाले दिन दाता बंदी छोड़ के नाम से प्रचलित हुए. इसलिए सिख समुदाय दीवाली को बंदी छोड़ दिवस के नाम से मनाता है।
मैं वैसे तो कुछ भी नहीं हूँ, सिख इतिहास के बारे में भी कुछ खास ज्ञान नहीं रखती हूं, पर फिर भी जितना कुछ मैंने अपनी दादी मां और परिवार के अन्य बड़ों अथवा किताबों आदि से पढ़ सुनकर सीखा है उन सभी को अपने शब्दों में डालकर आप सबके सामने प्रस्तुत करने की चेष्टा कर रही हूं ताकि अपने इस जन्म का अपने गुरु के प्रति अपने फर्ज को निभा सकूं।
क्योंकि जब मैं अपने चारों ओर देखती हूँ तो पाती हूँ कि  मेरे आसपास मेरे मित्रों, छोटे बच्चों यहां तक कि सिख धर्म में पैदा होने वाले लोगों को भी सिख इतिहास का ज्ञान नहीं है। इसलिए लगा कि साधारण भाषा में इतिहास के अनमोल मोतियों को आप सबके साथ साझा करना चाहिए। इस लेख में हुई इतिहास से जुड़ी कोई कमियां हो तो छोटी बहन, बेटी या साथी समझ कर माफ कर दीजिएगा। आशा है कि सिख इतिहास से अवगत कराते हुए मैं सिख होने का धर्म निभा रही हूं और आपको सिखों को केवल मात्र मज़ाक की छवि से उभारकर इतिहास से जोड़ते हुए सिखों के मूल्यों से परिचित करवाने की छोटी सी कोशिश कर पा रही हूं। कृपया अपने कमैंट्स द्वारा मेरे साथ अपने विचार अवश्य साँझा कीजिये।
"वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तेह।।"

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