2कविताऐं "सपने"
बीते कल के सपने
मेरे वो सपने जुड़े थे तुमसे
तुम्हीं से मेरा ह्रदय जुड़ा था
तुम्हें जो पाया मन उड़ चला था
तुम्हीं से मेरा हर आसरा था
पर तुम्हें था प्यारा यह जहां सारा
ना मिल सका मुझे तुमसे सहारा
मैं छुप गई फिर निज दाएरों में
और छोड़ बैठी सपने सजाना
फिर वक्त बदला नया दौर आया
मैंने भी जाना खुदी का फ़साना
यही, के यहां हमको जीना है अकेले
उठो और अपने सपने समेटो
नए तौर से इनको फिर से सजा लो
चलो! चलो! चलो! अब रुको मत!!
बस चलते ही जाओ।।
मेरा सपना
खुली नज़र का मेरा ये सपना,
बना रही हूं मैं एक घरौंदा
जहाँ सुनाई दें रहे हों ताने,
कोई भी अपना ना मुझको माने
ज़रा तो सोचो गुज़र हो कैसे
उन महलों में मेरे अह्न की
हैं तो बहुत घर मेरे जहाँ में
बड़े जतन से जिन्हें सजाया
पर
किसी ने बोला तुम हो पराई
किसी ने पूछा कहाँ से आई
इन जिल्लतों का बोझ है मन पर
कुछ कर गुज़रना है अपने दम पर
कब तक रहूंगी मैं बोझ बनकर
मैं क्यों नहीं सोचती हुँ हटकर
पिता, पति, पुत्र और भाई
सभी के घर में रही पराई
कभी कहीं घर मेरा भी होगा
जहाँ सर उठा कर मैं रह सकूंगी
खुली नज़र का मेरा ये सपना,
बना रही हूं मैं एक घरौंदा ।।
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