लघु कथा: "जल सेवा"
हर साल गर्मियों की छुट्टियों में हज़ारों लोग रेल यात्रा करते हुए भीषण गर्मी का प्रकोप झेलते हैं। ऐसे में यदि शीतल पेय जल मिल जाए तो कहना ही क्या। पिताजी और उनकी मित्र मंडली सह परिवार 1मई से 30जून तक रेलवे स्टेशन पर 24 घंटे की प्याऊ लगाते थे।
शाम 6 से रात्री 12 बजे तक की ट्रेनों पर जल सेवा के लिये बारी बारी मंडली के सदस्य ड्यूटी देते। बाकी सारा दिन कुछ लड़कों को आय पर रखा जाता।
दिन भर सभी को अपना कर्म स्थल जो सम्भालना होता था।
बड़े बड़े स्टील के ड्रमों में कप्पड़ छान कर पानी भरा जाता, बर्फ की सिल्लियाँ आतीं। हेण्डल वाले रामझारों एवं जगों से पानी पिला जाता। बोतल भरने के लिये कीप का प्रयोग होता। हम बच्चों को बहुत मज़ा आता था। जैसे ही ट्रेन का अनाऊन्समेन्ट होता हम सब सेवादार अपना अपना पात्र पानी से भर कर तैयार हो जाते और गाड़ी के प्लेटफाम पर आते ही ठंडा पानी पीलो, ठंडा पानी भरवालो की आवाज़ें लगा लगा कर यात्रियों की जल सेवा करते। बहुत आनंदमय लम्हें थे वो। बाल्यावस्था में शायद इसका मूल्य हमें पता नहीं था। और आज मूल्य जानते तो हैं पर ऐसा कुछ करने का सोचते भी नहीं हैं हम। कमी किसी चीज़ की नहीं है, बल्कि देखा जाये तो आज के दौर में पहले की तुलना में संसाधन अधिक हैं। कमी है जज्बे की।
धन्यवाद....
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