मेरी कहानी मेरी जुबानी





मेरी कहानी मेरी जुबानी
 मुझे पता है मैं कुछ खास नहीं अभी नादान सही
 शब्दों के खेल से अब तक अनजान सही

जिस गुलिस्तां में हजारों गुणों की महफिल है
 मेरा वजूद उस गुलजार में छोटा ही सही

 छोटी सी उम्र में सुनी थी जो गजलें कभी 
कम शब्दों में बड़ी बात अच्छी लगती थी 

यूं तो हर वक्त फ्री रहती थी मैं लोगों से 
अपनी छुट्टियों से हंसती हंसाती रहती थी 

पर सच यह है की तनहाई सदा भाती थी मुझे 
अपनी ही संगत में मजा बहुत आता था 

रात के अंधेरों में खुले आसमान तले 
तारों को निहारती सन्नाटों की धुन पर शब्दों  को कागज पर नचाया करती 

कभी हॉस्टल की खिड़की से तो कभी बगीचे में अकेले बैठकर 
कविताओं को पन्नों पर छापा करती 

पड़ी थी पहली कविता शरद पूर्णिमा की महफिल में 
उस रात चांद गजब का सुंदर था 

मेरी  आंखें भी चमक उठी थी उस पल 
जब हर कोना तालियों से गूंजा था 

बड़े हुए तो हाथों ने जिम्मेदारी की डोर कुछ इस तरह थामी 
खो गई कलम मेरी और सोच छुप गई गहराई में 

पर दुनिया कब साथ निभाती है
 दुनिया तो बस धमकाती है 

चाहे जितना भी डालो खुद को 
यह तब भी मुंह बनाती है 

जब हद हो गई नाटक की थक गया मन मुखौटों से
घुटन अब सहन न होती थी रिश्तो रिवाजों के लबादों की 

तब फिर खुद को उभारना जरूरी था 
मन को तराशना जरूरी था 

फिर शब्दों के उलझे ताने-बाने को सुलझा कर सजाना बहुत भाया 
और रब ने कि फिर ऐसी रहमत कि सुनने वालों का हुजूम आया 

दूर होकर भी सराहना मिली ऐसी कि दिल को सुकून और जीने में जुनून आया


दिल को सुकून और जीने में जुनून आया

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