हिन्दी कविता "आस"
आस
जिंदगी कठिन और जटिल लगती है मुझे,
हर दिन, नई चुनौती लिए खड़ा है तन कर।
दिलो दिमाग अब थकने से लगे हैं मानो
चेहरा भी मेरी दास्ताँ सुनाता है।
जो चाहा, जब चाहा पाने वाली, मैं;
अब हर चाह पर काँपने सी लगती हूँ
सोचती हूँ, जिसे दिल दिया था कभी
अब, उसी से सोच के बात करती हुं।
जागते सोचते गुज़र गईं कई रातें
पर सोचा क्या?
ये बात अब भी बाकी है
हर वादा हर बात झूठी है यहाँ
कोई नहीं है जो इन्हें निभा पाए
सब की ज़रूरतें जुड़ी हैं मुझसे
मेरी ख्वाहिशें क्यों बेगानी हैं
सोच और हकीकत कि तना तनी में-
देखो,
उलझने रोज़ गहरी होती हैं
अपना आसमान दूर;
बहुत दूर है अभी,
पर चाह प्रबल और आस अभी बाकी है।।
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